दिवाली की रात थी।
दिल्ली की ठंडी हवा में घी के दीयों की महक घुली हुई थी, और आसमान में हर कुछ मिनट पर पटाख़ों की झिलमिलाहट फैल जाती थी। मैं अान्या के घर की छत पर खड़ी थी — वही अान्या जो हर साल मुझसे कहती है, “तू अकेली क्यों रहती है? थोड़ा जी भी लिया कर।”
इस बार मैं मान गई थी। शायद मैं भी उस रोशनी का हिस्सा बनना चाहती थी, जिससे मैं हमेशा दूर रही हूँ।
लोग हँस रहे थे, नाच रहे थे, फोन निकाल-निकालकर तस्वीरें ले रहे थे। मैं मुस्कराती रही, लेकिन भीतर कहीं खालीपन था — जैसे भीड़ के बीच कोई धीमी खामोशी मुझसे लिपट गई हो।
तभी मैंने उसे देखा।
वो बालकनी के कोने में खड़ा था — सफेद कुर्ता, हल्की दाढ़ी, और एक ऐसा चेहरा जैसे किसी ने गलती से किसी किताब से निकालकर इस पार्टी में रख दिया हो। बाकी सब चमक रहे थे, वो बस चुप था, देख रहा था — शायद दुनिया को, शायद खुद को।
हमारी नज़रें टकराईं। उसने मुस्कराया — बिना किसी बनावट के, जैसे कोई कह दे, “हाँ, मैं भी ऐसा ही महसूस करता हूँ।”
और न जाने क्यों, मैं उसके पास चली गई।
“आपको भी लग रहा है कि यहाँ सब लोग थोड़ा ज़्यादा खुश हैं?” मैंने पूछा।
वो हँसा, हल्का-सा सिर झुकाते हुए बोला, “और आपको लग रहा है कि आप यहाँ ज़रूरत से ज़्यादा चुप हैं।”
उसकी आवाज़ में बिहार की मिट्टी की महक थी — वही लहजा जो मेरे कॉलेज के दिनों में एक पुराने क्रश की याद दिला गया। शायद इसीलिए मैं तुरंत सहज हो गई।
“मीरा,” मैंने कहा।
“अरुण,” उसने जवाब दिया। “आन्या के पति का दोस्त। आप?”
“आन्या की आत्मा का हिस्सा,” मैंने मज़ाक में कहा, और वो हँस पड़ा।
हम देर तक छत पर खड़े रहे। आसमान में रंग बिखर रहे थे, पर हमारी बातचीत ज़मीन पर टिके हुए थी।
हमने मौसम की बात की, काम की, इस शहर की, और उस अकेलेपन की जो हर बड़ी भीड़ में छुपा होता है।
वो बोला, “रांची से आया हूँ। काम के सिलसिले में। ये दिवाली तो बस किसी ने खींच लिया यहाँ।”
मैंने पूछा, “और अब? अच्छा लग रहा है?”
उसने मेरी ओर देखा, थोड़ी देर तक कुछ कहा नहीं, फिर बोला, “शायद। कल पूछना।”
उसके जवाब में जो शांति थी, उसने मेरे भीतर कुछ हिला दिया।
रात गहराती गई। लोग लौटने लगे। तभी आन्या आई, उसके चेहरे पर वही शरारती मुस्कान।
“तुम दोनों रुक जाओ। बहुत देर हो गई है। ऊपर गेस्ट रूम है, सोफे पर जगह है।”
मैं मना करने लगी, लेकिन वो नहीं मानी। अरुण मुस्कराया, “मुझे कोई आपत्ति नहीं, बस आप खर्राटे न लें।”
“मैं नहीं लेती,” मैंने कहा, “और अगर लूँ, तो तुम्हारे हिस्से के।”
हम हँस पड़े।
बाकी सब सो गए, लेकिन हमारी बातें चलती रहीं। हम छत पर बैठ गए — सामने आसमान था, जिसमें कुछ उड़ते हुए लालटेन खो रहे थे।
मैंने पूछा, “घर की याद आती है?”
वो बोला, “हमेशा। वहाँ दीवाली का मतलब शोर है, भीड़ है, लेकिन जान होती है। यहाँ सब सुंदर है, पर थोड़ा कृत्रिम भी।”
मैंने कहा, “शायद शहर वही जगह हैं जहाँ हम सब अकेलेपन से बचने आते हैं, और फिर उसे नया नाम दे देते हैं — व्यस्तता।”
वो हँसा, “या फिर हम बस ऐसे लोगों को ढूँढ़ते हैं जो हमें समझ लें — थोड़ी देर के लिए ही सही।”
उस पल हम दोनों चुप हो गए। लेकिन वो चुप्पी भारी नहीं थी, बस गहरी थी — जैसे दो आत्माएँ थोड़ी देर को एक लय में साँस ले रही हों।
करीब तीन बजे हम अंदर लौटे। पूरे घर में सन्नाटा था।
“तुम सोफे पर सो जाओ,” उसने कहा, “मैं नीचे कार्पेट पर लेट जाऊँगा।”
“नहीं,” मैंने कहा, “तुम्हारी कमर टूट जाएगी। मैं सोफे पर सो लूँगी।”
बहस चलती रही, जब तक कि हम दोनों उसी सोफे के दो सिरों पर नहीं लेट गए — थके, लेकिन अजीब-सी मुस्कान के साथ।
बाहर खिड़की से दीयों की हल्की रोशनी कमरे में गिर रही थी।
वो नींद में धीरे-धीरे साँस ले रहा था, और मैं उसकी तरफ देखती रही।
सोचती रही कि क्या वो भी वही महसूस कर रहा है — वो अजीब-सी नज़दीकी जो किसी स्पर्श से नहीं, बस मौन से बनती है।
मैं चाहती थी उससे कह दूँ — “कल मिलेंगे?”
लेकिन मैंने नहीं कहा।
कभी-कभी हम जानते हैं कि कुछ चीज़ें बस एक रात के लिए ही सही होती हैं — उन्हें कल में ले जाना उनकी सुंदरता को तोड़ देता है।
धीरे-धीरे नींद ने मुझे भी घेर लिया।